विवाह को एक संस्था के रूप में समझाइए | Vivah ko ek sanstha ke rup me Samjhayea


विवाह समाज द्वारा मान्य संबंध है। इसे एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था माना जाता है। विवाह के माध्यम से ही विषम लिंगों के लोग, पति और पत्नी की तरह एक साथ रहने की स्वीकृति पाते हैं। परंतु वर्तमान में कुछ ऐसे उदाहरण भी देखने में आए हैं जिनमें • समान लिंगों के व्यक्ति विवाह संबंध बनाते हैं। विवाह की संस्था को प्रत्येक समाज में देखा जा सकता है चाहे वह आदिम हो या आधुनिक परंतु इसकी प्रकृति में अंतर देखने में आता है। विवाह की संस्था में पाया जाने वाला यह अंतर सांस्कृतिक विभिन्नताओं के कारण होता है।

हैरी एम.जॉनसन के अनुसार, "विवाह एक ऐसा स्थायी संबंध है जिसमें एक पुरुष और एक स्त्री को समुदाय की स्थिति को क्षति पहुँचाए बिना, संतानोत्पत्ति की सामाजिक स्वीकृति प्राप्त होती है।

नोट्स एवं क्वेरीज के अनुसार, "विवाह एक पुरुष और एक स्त्री का मिलन है जिससे संतान की वैधता स्थापित होती है।"

बोगार्डस के अनुसार, “विवाह, स्त्री और पुरुष के पारिवारिक जीवन में प्रवेश करने की संस्था है। 

■ "रिवर्स के अनुसार, "जिन साधनों द्वारा मानव समाज यौन संबंधों का नियमन करता है, उन्हें विवाह की संज्ञा दी जाती है।"

■ मजूमदार के अनुसार, "विवाह, पुरुष एवं स्त्री का सामाजिक रूप से स्वीकृत मिलन है अथवा पुरुष के सहवास एवं मिलन को स्वीकृति प्रदान करने के लिए। समाज द्वारा स्वीकृत एक गौण संस्था है।"

भारत में विवाह की महत्ता :–

यह मानना अनुचित न होगा कि विवाह भारत की एक सर्वव्यापी सामाजिक संस्था है। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो यह समाज द्वारा मान्य संबंध है। यह संबंध कानून तथा रीति-रिवाजों द्वारा परिभाषित तथा मान्य है। इस संबंध की परिभाषा में न केवल यौन संबंधी व्यवस्था का मार्गदर्शन किया गया है वरन् ऐसी बातें भी संगृहीत हैं जिनका श्रम विभाजन के अतिरिक्त कर्त्तव्य और विशेषाधिकार से भी संबंध है। विवाह द्वारा उत्पन्न बच्चे विवाहित जोड़ी के वैध बच्चे माने जाते हैं। उत्तराधिकार और वंशक्रम के मामले में यह वैधता महत्त्वपूर्ण है। इस प्रकार विवाह न केवल यौन संतुष्टि का साधन है वरन् परिवार की निरंतरता बनाए रखने की एक निश्चित सांस्कृतिक क्रियाविधि है।विविधता के देश भारत में जुदा-जुदा समुदायों के लोग हैं जो अपनी-अपनी धार्मिक मान्यताओं के मुताबिक विवाह से संबद्ध उद्देश्य अधिकार और कर्त्तव्यों को अपनाते और व्यवहार में लाते हैं। मिसाल के तौर पर हिंदुओं में विवाह को एक सामाजिक तथा धार्मिक कर्त्तव्य माना जाता है। प्राचीन हिंदू ग्रंथों में विवाह के तीन मुख्य लक्ष्यों की ओर संकेत किया गया है। ये हैं धर्म (कर्त्तव्य), प्रजा (संतति) और रति (यौन सुख) । इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि समाज तथा व्यक्ति दोनों ही दृष्टिकोणों से विवाह महत्त्वपूर्ण है। क्योंकि इससे संतान उत्पन्न होती है। हिंदुओं में पुत्र प्राप्त करना विशेषकर उल्लेखनीय है क्योंकि वंश का की भूमिका अनिवार्य नाम पुत्र से ही चलता है और समय-समय पर धार्मिक अनुष्ठानों विशेषकर श्राद्ध कर्म जैसे अनुष्ठान (जो स्वर्गवासी पूर्वजों की संतुष्टि के लिए किए जाते हैं) में पुत्र होती हैं। अधिकांश हिंदू माता-पिता बुढ़ापे में सहारे तथा परिवार में आर्थिक समृद्धि के लिए भी पुत्र की कामना करते हैं। हिंदू व्यवस्था में विवाह द्वारा पुरुष गृहस्थ के रूप में आता है जिसमें बिना विवाह के पुरुष और महिला दोनों ही अपूर्ण और अधूरे समझे जाते हैं। विवाह को भारत के अन्य समुदायों में एक अनिवार्य सामाजिक दायित्व माना जाता है। मुस्लिम धर्म में विवाह को "सुन्नाह" (दायित्व) माना जाता है जिसे प्रत्येक मुसलमान को पूरा करना आवश्यक है। ईसाई धर्म विवाह को जीवन के लिए महत्त्वपूर्ण मानता है तथा पति-पत्नी के परस्पर संबंधों तथा एक-दूसरे के प्रति कर्त्तव्यों पर जोर देता है।

प्रायः हर समाज में विवाहिताओं का अधिक प्रतिशत भी विवाह के महत्त्व को रेखांकित करने के लिए पर्याप्त है कि विवाह के महत्त्व का इस बात से भी पता लगता है कि कभी भी, कहीं भी केवल कुछ प्रतिशत पुरुष और महिलाएँ ही अविवाहित पाए जाते हैं। भारत में महिलाओं की स्थिति पर एक कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार भारत में केवल 0.5 प्रतिशत महिलाएँ ही अविवाहित हैं। सामान्यतः लड़कियों को इस प्रकार की धारणा से ही बड़ा किया जाता है कि विवाह ही महिलाओं की नियति है, विवाहित अवस्था वांछनीय है और मातृत्व एक चिरसंचित उपलब्धि है। अपवाद स्वरूप ही केवल कुछ थोड़े से प्रतिशत महिला/पुरुष स्वेच्छा से अविवाहित होते हैं।

विवाह की महत्ता और उपयोगिता समझने के बावजूद शहरी तथा पढ़े-लिखे लोगों के लिए विवाह के लक्ष्य बदल रहे हैं। बड़े परिवार वाली पुरानी धारणा (अर्थात् बहुत से बच्चे, विशेष रूप से पुत्र जो माता-पिता के लिए प्रतिष्ठा का स्रोत है), के स्थान पर अब छोटे परिवार की ओर रुझान बढ़ रहा है। प्रजनन या सामाजिक कल्याण के बजाय आत्म संतुष्टि के लिए विवाह का उद्देश्य अब सामने आ रहा है। यह तो भविष्य के गर्भ में है कि ये लक्षण समाज के लिए हितकारी हैं या अहितकारी।


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