सामाजिक प्रभाव के सिद्धान्त (Principles of Social Influence)

सामाजिक प्रभावों के अन्तर्गत समाज मनोविज्ञान व्यक्ति के व्यवहार पर समाज या समूह के प्रभावों तथा इसके प्रति व्यक्ति की अनुक्रिया का अध्ययन करते हैं। सामाजिक प्रभावों का संबंध व्यक्ति की मौलिक प्रवृत्तियों से होता है। सामाजिक प्रभावों के द्वारा व्यक्ति की मौलिक प्रवृत्तियों को ही किसी खास उद्देश्य के लिए या फिर अनजाने में प्रभावित किया जाता है; अर्थात् कभी-कभी व्यक्ति के व्यवहार में अनजाने में बदलाव आ जाता है या फिर व्यवसायिक उद्देश्यों के लिए फिल्म, विज्ञापनों आदि द्वारा व्यक्ति को प्रभावित करने की कोशिश की जाती है। ऐसे में व्यक्ति अगर सचेत नहीं है तथा व्यवहार को प्रभावित करने वाले इन सामाजिक एजेन्ट के कार्य-कलापों को नहीं समझ पाता है तो फिर व्यक्ति का व्यवहार प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। आधुनिक परिप्रेक्ष्य में हम सब यह महसूस भी कर रहे हैं। भाषण, समाचार पत्र, रेडियो, सिनेमा, दूरदर्शन आदि प्रचार माध्यमों द्वारा व्यवहार परिवर्तन का कार्य आम हो चुका है। अतः अगर इन सब सामाजिक कारकों के प्रभावों से खुद को बचाना हो तो इनकी कार्य प्रणाली तथा उस संदर्भ को समझना जरूरी है, जिसके कारण व्यक्ति आसानी से इनका शिकार हो जाता है।
सामाजिक प्रभावों की भूमिका को समझने के लिए इनसे जुड़े सिद्धान्तों को जानना आवश्यक है, जो मुख्य रूप से छह: हैं:–

(1) पारस्परिकता (Reciprocity) : पारस्परिकता व्यक्ति की मौलिक प्रवृत्तियों तथा सामाजिक मांगों के बीच पारस्परिक प्रतिक्रिया और लेन-देन होता है। इसके अन्तर्गत द्विगामी प्रक्रिया (two-way process) चलती है, जिसमें एक ओर व्यक्ति समाज से प्रभावित होता है और दूसरी ओर समाज उस व्यक्ति से प्रभावित होता है। हम सब स्वयं इसकी सिद्धान्त की परीक्षा कर सकते हैं, जैसे अगर आप मुस्कुरा कर लोगों से मिलते हैं, तो देखिए कि कितने लोग मुस्कराते हुए आपकी मुस्कराहट का जवाब देते हैं?

(2) निरन्तरता (Consistency) : निरन्तरता का सिद्धान्त इस बात पर आधारित हुए है कि ज्यादातर लोगों का व्यवहार उनके द्वारा पूर्व में किए गए कार्य व्यवहार से साम्य रखता है। वे वही प्रक्रिया प्रणाली या परम्परा का निर्वाह करते हैं, जिसे वे पूर्व में भी अपनाते रहे हैं। किसी वस्तु, व्यक्ति या कार्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता प्रकट करते एक व्यक्ति वही करता है या फिर वही सोचता है, जो पहले भी उसकी सोच रही है।

(3) सामाजिक प्रमाण (Social Proof): इस सिद्धान्त के अन्तर्गत इस तथ्य पर बल दिया गया है कि लोग अधिकांशतः वही कार्य करते हैं अथवा वही निर्णय लेते हैं, जो समाज अथवा उनके समूह द्वारा अपनाया जाता है। दूसरे शब्दों में, व् ज्यादातर उदाहरणों में समाज का ही अनुपालन करता है और खासकर यह तब अवश्य होता है; जब परिस्थिति विकट या फिर अस्पष्ट हो और व्यक्ति यह न समझ पाए कि उसे अमूक परिस्थिति में क्या करना चाहिए। ऐसे व्यक्ति जो दुविधा में होते हैं, आसानी से समूह के निर्णय से प्रभावित हो जाते हैं।

(4) रुचि (Liking) : रुचि अथवा पसंद से संबंधित सिद्धान्त इस तथ्य पर बल देता है कि एक व्यक्ति अपनी रुचि व पसंद की वस्तु से आसानीपूर्वक और जल्द ही प्रभावित होता है। किसी व्यक्ति विशेष के प्रति हमारी रुचि के कई कारण हो सकते हैं, जैसे शारीरिक आकर्षण, वैचारिक समता, आपसी संबंध अथवा व्यक्ति विशेष का प्रशंसित व्यक्तित्व आदि ।

(5) प्राधिकार (Authority) : प्राधिकार से अभिप्राय यहां प्रभावशीलता है। परिवार में होने पर व्यक्ति अपने माता-पिता के प्राधिकार के अन्तर्गत रहता है, खासकर वयस्क होने से पहले और किसी कार्य या संस्था से जुड़े होने पर अपने बॉस के अधीन ऐसे में व्यक्ति पर इन प्राधिकारों के प्रभाव को कतई नकारा नहीं जा सकता। इस प्रभाव को हम कई रूपों में पहचान सकते हैं, जैसे पहनावे में, उपनाम के इस्तेमाल में या फिर भौतिक वस्तुओं के इस्तेमाल में भी।

(6) अभाव (Scarcity) : अभाव सिद्धान्त के अन्तर्गत ऐसा माना जाता है कि हम उन वस्तुओं तथा अवसरों के लिए ज्यादा उद्धृत होते हैं या उसे पाने की कोशिश करते हैं, जिन तक हमारी पहुंच आसान नहीं होती अर्थात् जिनका हमारे पास अभाव होता है। हम उन सुविधाओं के प्रति बहुत जल्द आकर्षित हो जाते हैं, जिनका मिलना मुश्किल होता है। पुनः अभाव सिद्धान्त को हम इस संदर्भ में भी समझ सकते हैं कि हम वैसे कार्य करने को ज्यादा उत्सुक होते हैं, जिनके लिए हमें रोका जाता है अथवा किसी खास नियंत्रण में रहता है। आजकल बाजार में अंतिम प्रति' अथवा 'छूट के लिए अंतिम सप्ताह' जैसे लुभावने विज्ञापन हमें बहुत जल्द आकर्षित करते हैं। वस्तुतः ऐसे शब्दों का आम लोगों पर तत्क्षण प्रभाव पड़ता है।

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