जीवन साथी चुनने की विभिन्न पद्धतियाँ निम्न हैं :
(1) अंतर्विवाह-
सामाजिक नियम के अनुसार प्रत्येक व्यक्ति को अपने ही वर्ग व जाति के में विवाह करने की आज्ञा होती है। इस प्रकार एक ब्राह्मण युवक को न केवल ब्राह्मण कन्या से विवाह करना होता है, बल्कि कान्यकुब्ज युवक को कान्यकुब्ज कन्या से, सरयूपारीन युवक को सरयूपारीन कन्या से और गौड़ युवक को गौड़ कन्या से ही विवाह करना होता है। कायस्थ जाति भी उपजातियों में विभक्त है, जैसे माथुर, सक्सेना, श्रीवास्तव, भटनागर, निगम आदि । कायस्थ युवक का विवाह, अंतर्विवाही नियमों के अनुसार उसी जाति में ही नहीं बल्कि उसी उपजाति में होता है। राजपूत जाति चार अंतर्विवाही उपजातियों में विभक्त है- सूर्यवंशी, चंद्रवंशी, नागवंशी और अग्निवंशी। अंतर्विवाह के नियमों के अनुसार एक राजपूत लड़के को न केवल राजपूत कन्या से ही विवाह करना होता है बल्कि अपने ही अंतर्विवाही समूह एवं उपजाति में। प्रारंभिक समाज में जाति अंतर्विवाह प्रकार्यात्मक था क्योंकि :
(क) यह वैवाहिक समायोजन सरल बना देता था। (ख) यह जाति के व्यावसायिक रहस्यों को सुरक्षित रखता था, (ग) यह जाति की एकता बनाए रखता था। (घ) यह जाति के सदस्यों या शक्ति को कम होने से रोकता था।
वर्तमान समाज में प्रथम कार्य को करने के सिवाय यह कोई अन्य कार्य नहीं करता है। इसके विपरीत, यह दुष्कार्यात्मक भी सिद्ध हुई है। अंतर्विवाह के नकारात्मक प्रभाव ये हैं कि :
(i) यह अंतर्जातीय तनावों को जन्म देता है जो देश की राजनैतिक एकता पर विपरीत प्रभाव डालता है,
(ii) वैवाहिक समायोजन की समस्या उत्पन्न करता है क्योंकि चुनाव का क्षेत्र सीमित ही रह जाता है,
(iii) बाल विवाह, दहेज व अन्य समस्याओं को जन्म देता है।
अनुलोम विवाह–
अनुलोम विवाह वह सामाजिक प्रथा है जिसके अनुसार उच्च जाति का लड़का निम्न जाति की लड़की से तथा इसके विपरीत भी विवाह कर सकता है। उदाहरण के लिए खत्री चार अनुलोम विवाही समूहों में विभक्त है - ढाईघर, चारघर, बारहघर और बावन जाति। ढाईघर समूह का लड़का न केवल ढाईघर समूह की लड़की से विवाह कर सकता है, बल्कि अन्य किसी भी तीन समूहों (चारघर, बारहघर व बावन जाति) की कन्या से विवाह कर सकता है। इसी प्रकार कन्नोज ब्राह्मण तीन उप-समूहों में उप-विभाजित है- 'खटकुल, पन्चधरी और धाकरा'। अनुलोमी विवाह नियमों के अनुसार खटकुल का लड़का पन्चधरी व धारका समूह की कन्या से विवाह कर सकता है, किंतु धाकरा लड़का केवल धाकरा लड़की से ही विवाह कर सकता है । यद्यपि अनुलोम विवाह मान्यता प्राप्त था. फिर भी शूद्र लड़की के उच्च जाति/वर्ग के लड़के से विवाह की निंदा की जाती थी।
(2) बहिर्विवाह–
बहिर्विवाह वह नियम है जो जीवन साथी के चुनाव को कुछ समूहों में निषिद्ध व अनुचित मानता है। हिन्दुओं में दो प्रकार का बहिर्विवाह मिलता है : गोत्र बहिर्विवाह और सपिंड बहिर्विवाह । इन दो के अतिरिक्त कुछ मामलों में गाँव को भी एक बहिर्विवाही समूह माना गया है। मार्गन ने अपनी पुस्तक में उल्लेख किया है कि बहिर्विवाह कुल व गोत्र के भीतर यौन अनैतिकता को रोकने के उद्देश्य से किया गया। दुर्खाइम के अनुसार बहिर्विवाह के लिए टोटम ही उत्तरदायी था । कुल रक्त को पवित्र माना जाता था और इस टोटम की पवित्रता को बनाए रखने के लिए व्यक्ति को यौन उद्देश्य के लिए इसका निषेध करना पड़ा।
बल्वकर के अनुसार बहिर्विवाह निषेध माता-पिता, संतान तथा भाई बहनों के बीच विवाह तथा मुक्त विवाह संबंधों को प्रतिबंधित करने के लिए बनाए गए थे।
(क) गोत्र बहिर्विवाह-
(ख) सपिंड बहिर्विवाह-
(3) तय किए गए विवाह-
• विवाह के विभिन्न प्रकारों की व्याख्या कीजिए। भारत में पाए जाने वाले विवाह के तीन मुख्य रूप कौन-कौन से हैं? वर्णन कीजिए ।
• भारतीय समाज में विवाह की आयु पर टिप्पणी लिखिए
• विवाह को एक संस्था के रूप में समझाइए
Thanks 🥰
ReplyDeleteWelcome : )
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