23 साल की युवावस्था में हुमायूँ दिसंबर 1530 में बाबर का उत्तराधिकारी बना। उसे बाबर की छोड़ी हुई अनेक समस्याओं से जूझना पड़ा। प्रशासन में पुख्तगी अभी नहीं आई थी; राज्य की वित्तीय स्थिति डाँवाडोल थी और अफ़गान अभी अधीन नहीं हुए थे तथा भारत से मुगलों को निकाल बाहर करने की आशा पाले थे। अंतिम समस्या थी सभी भाइयों में साम्राज्य को बाँटने की तैमूरी परंपरा की। बाबर ने हुमायूँ को अपने भाइयों के साथ उदारतापूर्वक व्यवहार करने की सलाह दी थी. लेकिन वह नवजात मुगल साम्राज्य के विभाजन के पक्ष में न था जो विनाशकारी हो सकता था। कंदहार हुमायूँ के छोटे भाई कामरान की निगरानी में थे और उसका मानना था कि कूच उसकी निगरानी में उनका रहना स्वाभाविक ही था। पर कामरान गरीबी के मारे हुए इन क्षेत्रों से संतुष्ट न था। इसलिए उसने लाहौर और मुलतान की ओर और उन पर अधिकार कर लिया। हुमायूँ कहीं और व्यस्त था और वह एक गृहयुद्ध भी आरंभ करना नहीं चाहता था। इसलिए उसके पास इसे मान लेने के अलावा विकल्प भी नहीं था। कामरान ने हुमायूँ की अधीनता स्वीकार कर ली और जब भी आवश्यकता हो, उसकी सहायता का वचन दिया। कामरान की कार्रवाई ने यह आशंका पैदा कर दी कि हुमायूँ के दूसरे भाई भी जब कभी अवसर पाएँगे, यही रास्ता अपनाएँगे। लेकिन कामरान को पंजाब और मुलतान देने का तत्कालिक लाभ यह हुआ कि अपनी पश्चिमी सीमाओं की चिंता किए बगैर हुमायूँ पूर्वी भागों प ध्यान देने के लिए मुक्त हो गया।
इन बातों के अलावा हुमायूँ को पूरब में अफ़गानों की तेजी से बढ़ती शक्ति और गुजरात के शासक बहादुरशाह की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा का भी सामना करना पड़ा। आरंभ में हुमायूँ का विचार यह था कि अफ़गान खतरा इन दोनों से कहीं अधिक गंभीर है। 1532 में दोराहा नामक एक स्थान पर उसने उन अफ़गान सेनाओं को हराया जिन्होंने बिहार को जीता था और पूर्वी उत्तर प्रदेश में जौनपुर को तहसनहस कर डाला था। इस सफलता के बाद हुमायूँ ने चुनार पर घेरा डाला। यह शक्तिशाली किला आगरा और पूरब के बीच के स्थलमार्ग और जलमार्ग को नियंत्रित करता था तथा पूर्वी भारत का द्वार कहलाता था। हाल ही में वह अफ़ग़ान सरदार शेरखान के अधिकार में आया था जो अफ़गान सरदारों में सबसे अधिक शक्तिशाली बन चुका था।
चुनार की घेराबंदी को जब चार माह हो चुके तो शेरखान ने हुमायूँ को मना लिया कि किला उसी के हाथों में रहने दिया जाए। बदले में उसने मुगलों का वफ़ादार रहने का वादा किया और जमानत के तौर पर अपने बेटे को हुमायूँ के पास भेजा। हुमायूँ ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि उसे आगरा-वापसी की चिंता थी। गुजरात में बहादुरशाह की शक्ति की तीव्र वृद्धि ने तथा आगरा से लगे क्षेत्रों में उसकी सरगर्मियों ने हुमायूँ को चिंतित कर दिया था। वह किसी अमीर की कनान में चुनार का घेरा जारी रखने को तैयार न था क्योंकि इसका मतलब अपनी सेना को बाँटना होता।
बहादुरशाह, जो लगभग हुमायूँ की ही उम्र का था, एक योग्य और महत्त्वाकांक्षी शासक था। 1526 में गद्दी पर बैठने के बाद उसने पहले मालवा को जीता और फिर उसने राजस्थान का रुख करके चित्तौड़ पर घेरा डालकर राजपूतों के प्रतिरोध को छिन्न-भिन्न कर दिया। बाद की कुछ कथाओं के अनुसार इसी समय राणा साँगा की विधवा रानी कर्णावती ने हुमायूँ को राखी भेजकर उसकी मदद माँगी और हुमायूँ ने शूरवीरों की तरह उसका प्रत्युत्तर दिया। किसी तत्कालीन लेखक ने इस कथा का जिक्र नहीं किया है और हो सकता है यह सच भी न हो लेकिन इतना अवश्य सच है कि हुमायूँ बहादुरशाह आगरा से ग्वालियर पहुँच गया और मुगल हस्तक्षेप के डर से ने राणा से एक संधि कर ली जिसके अनुसार नकदी और वस्तु रूप में भारी हर्जाना लेकर किला राणा के पास रहने दिया। अगले डेढ़ साल के दौरान हुमायूँ ने दिल्ली में एक नया शहर बसाने में अपना
समय लगाया; इसे उसने दीनपनाह नाम दिया। इस काल में उसने शानदार भोजों और समारोहों का आयोजन किया। हुमायूँ पर आरोप लगाया गया है कि पूरब में शेरखान जब बराबर अपनी शक्ति बढ़ा रहा था, तब उसने इन कार्यकलापों में अपना कीमती समय बर्बाद किया। यह भी कहा गया है कि हुमायूँ की निष्क्रियता का कारण उसकी अफीम खाने की आदत थी। इनमें से कोई भी आरोप पूरी तरह सच नहीं है। शराब छोड़ने के बाद बाबर ने अफीम का सेवन जारी रखा था। हुमायूँ कभी-कभी शराब की जगह या उसके साथ अफीम खाता था, और यही उसके बहुत-से अमीर करते थे। पर अफीम का आदी न बाबर था और न हुमायूँ। दीनपनाह बसाने का उद्देश्य दोस्तों और दुश्मनों पर एक समान रोब डालना था। इसका मकसद यह भी था कि अगर आगरा पर बहादुरशाह का खतरा मँडराए तो यह दूसरी राजधानी का काम कर सके। बहादुरशाह इस बीच अजमेर को जीत चुका था और उसने पूर्वी राजस्थान को रौंद डाला था।
बहादुरशाह हुमायूँ के लिए कहीं बड़ा खतरा था। उसने अपने दरबार को उन सबका शरणस्थल बना दिया जो मुगलों से डरते या नफ़रत करते थे। उसने फिर चित्तौड़ का घेरा डाला और साथ ही इब्राहीम लोदी के चचेरे भाई तातार खान को हथियारों और सैनिकों की मदद दी। तय हुआ कि उत्तर और पूरब में ध्यान बँटाया जाए और तातार खान 40,000 की सेना के साथ आगरा पर आक्रमण करे।
हुमायूँ ने तातार खान की चुनौती को आसानी से मात दी। मुगलों के सामने आने पर अफ़गान सैनिक बिखर गए। तातार खान हारा और मार डाला गया। बहादुरशाह के खतरे को हमेशा के लिए मिटाने के वास्ते हुमायूँ ने अब मालवा पर हमला किया।
इसके बाद के संघर्ष में हुमायूँ ने अच्छे-खासे सैन्य कौशल और उल्लेखनीय निजी शौर्य का परिचय दिया। बहादुरशाह मुगलों का सामना करने का साहस न कर सका। उसने चित्तौड़ को छोड़ दिया जिस पर वह अधिकार कर चुका था और मंदसौर के पास स्वयं को एक खेमे में किलाबंद किया। लेकिन हुमायूँ की सावधानी भरी रणनीति ने उसे अपने सारे साज-सामान को छोड़कर मांडू जाने पर मजबूर कर दिया। हुमायूँ सरगर्मी से उसका पीछा करता रहा। उसने मांडू के किले पर घेरा डाला और किसी खास विरोध के बिना उसे जीत लिया। बहादुरशाह मांडू से भागकर चाँपानेर चला गया। एक छोटा-सा दल, एक ऐसे रास्ते से जिसे अगम्य समझा जाता था, चौपानेर के किले की दीवारों पर चढ़ गया। हुमायूँ दीवार पर जैसे समृद्ध प्रांत तथा चढ़नेवाला इकतालीसवाँ व्यक्ति था। बहादुरशाह अब भागकर अहमदाबाद और अंत में काठियावाड़ जा पहुँचा। इस तरह मालवा और गुजरात गुजरात के शासकों द्वारा मांडू और चाँपानेर में जमा किए गए भारी खजाने भी हुमायूँ के हाथ आ गए।
गुजरात और मालवा जितनी जल्द हाथ आए थे, उतनी ही जल्द निकल भी गए। गुजरात को जीतने के बाद हुमायूँ ने उसे अपने छोटे भाई अस्करी के नियंत्रण में दे दिया। फिर वह मांडू चला गया जिसकी केंद्रीय स्थिति थी और जहाँ से चारों ओर नज़र रखना आसान था। वह वहाँ उम्दा जलवायु का आनंद लेने लगा। एक प्रमुख समस्या गुजराती शासन से जनता के गहरे लगाव की थी। अस्करी अनुभवहीन था और मुगल अमीर आपस में बँटे हुए थे। जनता के विद्रोहों की एक श्रृंखला, बहादुरशाह के अमीर की सैन्य कार्रवाइयों और तेजी से बहादुरशाह की शक्ति के पुनरुत्थान ने अस्करी के हाथ-पाँव फुला दिए। उसने चाँपानेर का सहारा चाहा पर उसे किलादार से कोई सहायता नहीं मिली जो उसके इरादों के बारे में आशंकित था। इसलिए अस्करी ने आगरा लौटने का फैसला किया। इससे तत्काल यह डर पैदा हो गया कि वह हुमायूँ को आगरा से बेदखल करने या अपने लिए एक अलग साम्राज्य बनाने का प्रयास कर सकता है। कोई जोखिम मोल न लेकर हुमायूँ ने मालवा को छोड़ दिया और सैनिकों को बलात चला चलाकर अस्करी के पीछे भागा। उसने अस्करी को राजस्थान में जा पकड़ा। दोनों भाइयों में सुलह हुई और वे में वापस आगरा लौटे। इस बीच गुजरात और मालवा दोनों हाथ से निकल गए थे।
गुजरात की मुहिम पूरी तरह असफल नहीं रही। इस मुहिम के कारण मुगलों का इलाका तो नहीं बढ़ा, पर मुगलों के लिए बहादुरशाह का खतरा हमेशा के लिए मिट गया। हुमायूँ अब इस हाल में आ गया कि शेरखान और अफ़गानों के खिलाफ़ पूरी शक्ति लगा सके। कुछ ही समय बाद अपने एक जहाज़ पर पुर्तगालियों से हुई मुठभेड़ में बहादुरशाह डूब मरा। इसके साथ गुजरात की ओर से जो रहा-सहा खतरा था वह भी जाता रहा।
SOURCE :
- मध्यकालीन भारत_ राजनीति, समाज और संस्कृति_ आठवीं से सत्रहवीं सदी तक –Satish Chandra , ओरियंत ब्लैकस्वान , पृष्ठ संख्या- 205 से 208.
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