पर्यावरण नियमों के प्रवर्तन में आने वाली कठिनाइयों

पर्यावरण नियमों के प्रवर्तन में आने वाली कठिनाइयों

वे मूलभूत समस्याएँ इस प्रकार हैं जो राष्ट्रीय पर्यावरण विधि-विधानों के प्रवर्तन में आड़े आती हैं –

  •  राष्ट्रीय स्तर पर तमाम नियमों एवं प्रावधानों के विश्लेषण के बाद यह देखने को मिलता है कि अधिकतर वर्तमान पर्यावरण विधेयक अनिवार्यतः दंडनीय हैं, न कि निरोधात्मक उदाहरण के लिए एक बार रासायनों तथा पदार्थों के वायु अथवा जल अथवा मृदा में विसर्जित किए जाने पर ही अधिनियम लागू होगा? निरोधक उपायों ने शायद ही कभी लागू किया हो और न ही वे कारगर हुए हैं और संबद्ध एजेंसियाँ तभी कुछ काम किया करती हैं जब कुछ नुकसान हो चुका होता है। यदि हम पर्यावरण विधेयकों के प्रवर्तन के लिए वास्तव में गंभीर है तो हमें यह अग्निशमन-बिग्रेड जैसा अभिगम यानी आग लग जाने के बाद उस स्थल की ओर दौड़ना जैसा करना छोड़ना होगा। रणनीति यह होनी चाहिए कि आग लगने के कारणों पर प्रहार करने पर भी उतना ही बल देना चाहिए। पर्यावरण विधेयकों के लागू करने में अधिक गंभीर समस्या यह आती है कि कंपनियों की सुरक्षा की क्रियाविधियों एवं उपकरणों की जाँच करने तथा उन्हें निरापत्ति की सुरक्षा की क्रियाविधियों एवं उपकरणों की जाँच करने तथा उन्हें निरापत्ति प्रमाणपत्र (NOC) मंजूर करने या न करने में विभिन्न प्राधिकरणों के परस्परव्यापी अधिकार है। उदाहरण के लिए, यद्यपि जल एवं वायु प्रदुषण बोर्ड हो सकता है NOC न दे, मगर हो सकता है कि नगरपालिका किसी औद्योगिक इकाई के लाइसेंस दे दे जिनके आधार पर वह निर्माण कार्य आरंभ कर दे।
  •  कुछ उदाहरणों में पर्यावरण विधयेकों के अध्यादेशों में प्राधिकरणों की प्रकृति तथा उनके विशिष्ट अधिकारों एवं दायित्वों के विषय में कोई दिशा-निर्देश नहीं किए गए। हैं। ऐसे औपचारिक दिशानिर्देशों के अभाव में विभिन्न एजेंसियाँ संरचनात्मक रूप में अविशेषज्ञ, कार्य की दृष्टि से अकुशल और इस प्रकार पूर्णतः अप्रभावकारी होती हैं। ऐसा भी हो सकता है कि अधिनियम बहुत पहले पारित किया गया हो लेकिन उसके प्रवर्तन एवं क्रियान्वयन के लिए नियमन नहीं बनाए गए हों। ऐसे नियमों के अभाव में पर्यावरण एजेंसियों के लिए चूककर्त्ताओं के विरुद्ध कोई भी कार्यवाही करना बहुत कठिन हो जाता है। कुछ ही समय पहले दिल्ली राज्य की सरकार ने रंगदार प्लास्टिक थैलों के निर्माण एवं उपयोग पर प्रतिबंध लगाया था लेकिन चूक करने वालों पर कार्यवाही करने के कोई भी नियम नहीं बनाए थे। अतः जब राज्य के पर्यावरण विभाग ने देखा कि कुछ फैक्ट्रियाँ प्रतिबंधित थैले बना रही थीं तो उनके पास प्रावधान नहीं था कि क्या कार्यवाही की जाए।
  •  कभी कभार प्रवर्तन एजेंसियों के लापरवाहीपूर्ण रवैये से भी विधेयकों का प्रवर्तन नहीं हो पाता है। इसे समझने के लिए एक उदाहरण 1995 के राष्ट्रीय पर्यावरण ट्रिव्यूनल अधिनियम का लिया जा सकता है। यह विधेयक सात वर्ष पूर्व पारित किया गया था जिसका उद्देश्य जोखिम भरे पदार्थों से जुड़ी दुर्घटनाओं से पीड़ित लोगों को शीघ्रता से न्याय दिलवाना था। मगर वास्तविकता यह है कि पर्यावरण मंत्रालय अभी तक किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं खोज पाया है जो इसका कार्यभार संभाल सकता। इसे पर्यावरण एजेसियों के अति लापरवाही वाला रवैया ही तो कहा जाएगा।
  •  भारत में पर्यावरण विधानों का एक समान पहलू यह है कि उनके लागू करने में जनता का हाथ बँटाना शामिल नहीं किया गया। पर्यावरण को हानि पहुँचाकर लाभ कमाने वाले उद्यमों का भली प्रकार प्रतिनिधित्व होता एवं उनके हितों की रक्षा की जाती है मगर यह एक आम आदमी जो प्रदूषण एवं निम्नीकरण के परिणामों से पीड़ित होता है उसकी कहीं सुनवाई नहीं है।
  •  कभी-कभार धन के अभाव के कारण विधेयकों का लागू करना कठिन होता है। उदाहरण के लिए, भारत की नदियों के प्रदूषण का मामला है। यह सर्वविदित है कि नदियों के प्रदूषण का मुख्य स्रोत घरेलू जल-मल है जिसे नगरपालिकाएँ बड़ी लापरवाही से निकटतम नदियों में छोड़ देते हैं। गंगा नदी का 90 प्रतिशत प्रदूषण 100 के लगभग नगरपालिकाओं के अपशिष्टों का परिणाम है। गंगा कार्य योजना के अंतर्गत किया जाने वाला विशाल सफाई अभियान एक निरर्थक प्रयास बनकर रह जाएगा यदि उसके साथ-साथ नगरपालिकाओं को अपना अपशिष्ट नदी में डालने को सख्ती से न रोका। हर कोई जानता है कि नगरपालिकीय अपशिष्ट के उपचार के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध है। परंतु इसका खर्चा बहुत सी तथा अधिकतर नगरपालिकाएँ बर्दाशत नहीं कर सकतीं।
  •  जनता का विरोध भी पर्यावरण कानून-व्यवस्था को लागू करने में बाधा बना हुआ है। उदाहरण के लिए, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने नई-दिल्ली के सभी सार्वजनिक वाहनों के लिए CNG का इस्तेमाल अनिवार्य घोषित किया। मगर इस आदेश से शहर की 15000 टैक्सियाँ तथा 10000 बसें गायब हो गई जिससे जनता में बेहद रोष दंगे हुए और यात्रियों की भारी अव्यवस्था हुई। इसी प्रकार जनता ने हुआ, सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश का भी समर्थन नहीं किया जिसमें 15 वर्ष से अधिक पुराने सार्वजनिक वाहनों के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगा दिया था।

इस प्रकार हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्रदूषण के प्रति समाज की सुरक्षा हेतु पर्यावरण नियम एक "रखवाले" के रूप में कार्य करते हैं। पर प्रश्न उठता है कि ये सब कायदे में कानून और साथ में प्रदूषण बोर्डों के होने से क्या मानव जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाने में सफल हुए? जितनी उनकी सफलता नहीं हुई उससे कहीं ज्यादा उनकी अप्रभावशीलता रही है। भोपाल त्रासदी के तुरंत बाद देश के अनेक भागों में लगातार कई गैस विस्फोट, रासायनिक दुर्घटनाएँ तथा रिसाव हुए।

फिर भी, कानूनों में मौजूदा अपर्याप्तता तथा न्यायिक प्रक्रियाओं की जटिलता के बावजूद हाल के पिछले वर्षों में न्यायालय के कुछ ऐसे निर्णय आए हैं जिनसे आशा बंधी है कि नए कानूनों के पारित होने के बाद देश में कुछ हद तक पर्यावरण सुरक्षा नियंत्रित हो सकेगी और प्रवर्तन एजेंसियों को ठीक से चलाने पर उल्लंघनकारी कंपनियों तथा एजेंसियों को सामने लाया जा सकेगा। यह तभी संभव होगा जब प्रवर्तनकारी मशीनरी एवं एजेंसियाँ जनता के समर्थन के साथ ठोस से कार्य करें।

आजकल पर्यावरण पहलुओं की वृद्धि एवं विकास में न्यायिका एक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा रही है। एक रखवाले की तरह यह संविधान की पवित्रता एवं उसके सम्मान को बनाए रखने का प्रयास करती है ताकि वह मात्र एक कागजी बाघ बन कर ही न रह जाए। पर ऐसे बहुत ही कम उदाहरण है जिनमें जनहित याचिकाओं (PIL) के द्वारा जनता ने न्यायपालिका के द्वार खटखटाए हों ताकि वर्तमान पर्यावरण नियमों को लागू किया जा सके। ऐसी जनहित याचिकाओं के योगदानों को विशेष तौर पर सामने लाने के लिए हम यहाँ कुछ खास उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। सन 2000 में सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली रिहायशी इलाकों में प्रदूषणकारी फैक्ट्रियों को बंद करने के आदेश जारी किए थे हजारों मजदूरों और फैक्ट्री मालिकों इस आदेश का विरोध किया। मगर इस कदम से निश्चय ही उन अनेक निवासियों के स्वास्थ्य की सुरक्षा हुई है जो इन प्रदूषणकारी उद्योगों के निकट रह रहे थे त्यौहारों के दिनों में अत्यधिक शोर होने के कारण कोलकता में वहाँ के स्थानीय न्यायालय ने कुछ खास सीमा से ऊपर के शोर पर कड़े प्रतिबंध लगा दिए और उनका कड़ाई से पालन का आदेश जारी किया। इसी प्रकार दिल्ली के राजधानी क्षेत्र में जून 2001 में आदेश जारी किया गया कि सभी नए मोटर वाहनों में अनेक यूरोपीय देशों में चल रहे यूरो-II स्तर (जिसे भारत चरण-II कहा गया) के तुल्य प्रदूषण रोकथाम क्रियाविधि मौजूद होना चाहिए। हाल के समय में ऐसे कानून बहुत महत्त्वपूर्ण हो गए हैं जो प्रदूषणकारी उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्टों का निपटान, पैकेजिंग, ऐसे उद्योगों के स्थान एवं हटाकर दूसरी जगह ले जाने से संबंधित हैं तथा छोटे पैमाने के उद्योगों के लिए सम्मिलित बहि प्रवाह उपचार संयंत्र लगाने से संबंधित हैं और जिनके द्वारा सार्वजनिक परिवहन में उपयोग होने वाले वाहनों के CNG का उपयोग कानूनन जरूरी बना दिया गया है। आदरणीय न्यायालयों के आदेशों को लागू करने वाले प्राधिकरण को इनका लगातार पालन करा रहे हैं।

बहुत से कानूनों का जैसे कि प्लास्टिक के थैलों का उपयोग न करने के कानून का पूरी तरह लागू होना तभी संभव हो सकता है जब जनता की जागरूकता बढ़ाई जाए न कि न्यायपालिका के निर्देशों के द्वारा। देखा जाए तो वास्तव में अनेक पर्यावरण कानून अनिवार्यतः 'सामाजिक आचरण संहिता" है जिसे कानूनी ढाँचा न लेकर स्वतः ही एक बेहतर नागरिक संवेदना बनना चाहिए। अतः जनता जागरूकता तथा पर्यावरण शिक्षा दोनों के मिलने से बहुत से पर्यावरण कानूनों की जरूरत ही नहीं होगी, और यह सब इसलिए क्योंकि भारत के संदर्भ में जोर जबरदस्ती के कानूनों का पालन कराना निकट भविष्य में संभव होना कठिन जान पड़ता है।

कुछ मूलभूत संकल्पनाओं में अंतर्राष्ट्रीय नियम घरेलू नियमों से भिन्न हैं और ऐसा इसलिए कि तमाम राष्ट्रों के ऊपर प्रवर्तन अधिकार वाली कोई एक विश्व सरकार नहीं है। परिणामतः अंतर्राष्ट्रीय कानून व्यवस्था को संबद्ध पक्षों के समझौते पर निर्भर करना होगा कि वे दस्तावेज की शर्तों का पालन करें। मगर हो सकता है कि किसी एक राष्ट्र के बहुत से निवासी उसका विरोध करें। इसी कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण गुणवत्ता का सुधार अधिकतर निष्फल रहा है। सैकड़ों अंतर्राष्ट्रीय संधियों, प्रोटोकोलों तथा सम्मेलनों के होने के बावजूद हमारे इस ग्रह के साथ हुए दुर्व्यवहार के अनेकानेक उदाहरण मौजूद हैं। फिर भी, इन अंतर्राष्ट्रीय नियमों की एक बड़ी भारी भूमिका यह रही है कि इनके कारण अनेक संसाधनों की सुरक्षा हुई है, क्षेत्रीय स्तर पर जल की गुणवत्ता पुनः प्राप्त हुई है, और वैश्विक संसाधनों जैसे कि ओजोन परत का रिक्तीकरण कम हुआ है और सबसे महत्त्वपूर्ण पर्यावरण से संबंधित बहुत से मुद्दों पर चर्चा पैदा करने और जनता की जागरूकता बढ़ाने में विशेष योगदान है।

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