भारत में मातृवंशीय समुदाय सिर्फ उत्तर-पूर्वी और दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्रों में ही देखा जाता है। उत्तर भारत में मातृवंशीय सामाजिक संगठन मेघालय और असम की गारो और खासी जनजातियों में पाया जाता है। दक्षिण भारत में, केरल, कर्नाटक और तमिलनाडु के कुछ हिस्सों में और केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप में मातृवंश पाया जाता है। इन क्षेत्रों में हिंदू और मुस्लिम दोनों के मातृवंशीय समूहों के बीच, संपत्ति उनकी बेटियों को उनकी माताओं से विरासत में मिली है।
(1) उत्तर-पूर्व भारत में मातृवंशीय समूह –
उत्तर-पूर्व में, खासकर मेघालय और असम के राज्यों में गारो और खासी द्वारा मातृवंश का प्रतिनिधित्व किया जाता है। इन दो 'समूहों में से प्रत्येक में नातेदारी संगठन की कुछ विशेषताएँ हैं।
(क) गारो - गारो जनजातियों में, जो मुख्यतः मेघालय राज्य में पाई जाती हैं, मातृवंश परंपरा का पुत्रियों द्वारा स्थापित घरबार की व्यवस्था से पता चलता है। ये गृहस्थियाँ मूल गृहस्थी से बनती हैं। हर मूल गृहस्थी में स्त्री, उसकी पुत्री तथा दामाद होते हैं और पुत्री को उसमें रखकर मूल गृहस्थी को जारी रखा जाता है । इस पुत्री विशेष के पति (नोकमा) को गृहस्थी अर्थात् नोक के प्रधान और प्रबंधक के अधिकार और कर्त्तव्य उत्तराधिकार से मिलते हैं और पुत्री को उत्तराधिकार में संपत्ति मिलती है। अविवाहित पुत्रियाँ और पुत्र अपनी माता के साथ रहते हैं जबकि एक पुत्री को छोड़कर जो अपने मूल घर में रहती है, अन्य सभी विवाहित पुत्रियाँ अपनी माता के घर के पास ही अपनी गृहस्थी बसा लेती हैं। विवाहित पुत्र अपनी पत्नियों के साथ मिलकर अपनी गृहस्थी में रहने के लिए माता का घर छोड़ देते हैं। मातृवंश परंपरा को "मचोंग कहा जाता है जिसका अर्थ है एक बस्ती में रहने वाला विस्तारित नातेदारी समूह | मातृवंश या मचग के सभी सदस्यों का एक ही माँ से उद्गम होता है। संतानें अपनी माता के कुल का नाम ग्रहण करती हैं।
गारो समूह दो अंशों में बंटे हैं। गारो भाषा में अंश को कट्ची कहते हैं। प्रायः जनजाति समाज नातेदारी की इन इकाइयों में बंटे होते हैं। गारो जनजातियाँ में इन दो नातेदारी इकाइयों को मरक और संगमा कहते हैं, इन दो इकाइयाँ में अंतर्विवाह नहीं होते। गारो के इस दोहरे सामाजिक संगठन के कारण उन्हें प्रत्येक अंश की सीमा में ही नातेदारों के बढ़ते हुए दायरे मिलते रहते हैं। नातेदारी के ये समूह आपसी विवादों को निपटाने का काम भी करते हैं। मातृवंश परंपरा के नातेदार ही इन मामलों में कार्रवाई करते हैं। मुखिया (नौकमा) की संस्थागत भूमिका स्थानीय ग्राम समूहों के संगठन का आधार होती है।
विवाह के बाद आवास का विन्यास पत्नी स्थानिक होता है। इसका अर्थ है कि विवाह के बाद जामाता पत्नी के माता-पिता (सास-ससुर) के घर में रहता है। वह अपने ससुर का नोकरम बन जाता है। ससुर की मृत्यु के बाद नोकरम अपनी सास से विवाह कर लेता है और माता तथा पुत्री दोनों का पति बन जाता है। बरलिंग (1963) के अनुसार नोकरम का अपनी सास से विवाह केवल एक आर्थिक व्यवस्था है, जिससे जामाता अपने ससुर के बाद नोक का मुखिया बन सके। गारो में प्रथा है कि पति के जीवन काल में सास और जामाता के बीच दूरी रहती है। यही कारण है कि ससुर की मृत्यु के बाद इन दोनों के बीच विवाह को बरलिंग (1963) ने केवल एक आर्थिक व्यवस्था के रूप में देखा है। ऐसे विवाह से उत्पन्न संतान को माता की वंश परंपरा का सदस्य माना जाता है। यदि किसी परिवार में नोकरम या जामाता के आने से पहले ही कोई महिला विधवा हो जाती है तो वह अपने दिवंगत पति के परिवार की अनुमति के बिना पुनर्विवाह नहीं कर सकती।
गारो समाज में तलाक मामले बहुत विरल होते हैं। हाँ, परस्त्री / पुरुष गमन करने पर तलाक अवश्य हो जाता है। इसी प्रकार काम करने से मना करने पर भी तलाक हो सकता है।
(ख) खासी -खासी जो कि एक मातृवंशीय जनजाति है, मेघालय की पहाड़ियों में रहती है। इस जनजाति के लोग वंशक्रम का निर्धारण मातृवंश परंपरा से करते हैं। इसका मतलब है कि वे माँ के माध्यम से अपने वंश का पता लगाते हैं। विरासत और उत्तराधिकार भी माँ के माध्यम से ही है। शादी के बाद निवास मातृस्थानिक होता है। इसका अर्थ यह है कि शादी के बाद एक आदमी अपनी पत्नी के माता-पिता के साथ रहता है। खासी में बहिर्विवाही कुल है। इसका मतलब यह है कि एक कुल के दो व्यक्ति एक-दूसरे से शादी नहीं कर सकते हैं। उनकी नातेदारी शब्दावली वर्गात्मक होती है, अर्थात वे अपनी वंश परंपरा के नातेदारी (पिता, पुत्र आदि) को उन शब्दों से पुकारते हैं, जो शब्द पितृवंश परंपरा उसी अनुक्रम के नातेदारों (ताऊ, चाचा, चचेरे भाई आदि) के लिए भी लागू होते हैं। खासी जनजाति में विवाह के नियमों में मातृवंशीय ममेरे भाई-बहनों के बीच विवाह संबंध स्वीकार्य हैं। लेकिन लिविरेट विधवा की शादी (अपने पति के भाई के साथ) या सोरोरेट (एक विधुर का अपनी पत्नी की बहन से विवाह) की शादी की अनुमति नहीं है। उनमें अनुलोम विवाह अर्थात महिला के अपने समूह से अधिक उच्च हैसियत के समूह में विवाह की प्रथा भी नहीं है। बहुपत्नी (एक समय में एक पुरुष का एक से अधिक पत्नी का विवाह) और साथ ही बहुपति (एक समय में एक महिला का एक से अधिक पति का विवाह) खासी में नहीं पाये जाते हैं। पुरुष पत्नी के अतिरिक्त अन्य महिला से वैवाहिक संबंध अवश्य रख सकता है। कुछ समूहों में उस महिला से हुई संतान की अपने पिता की अर्जित संपत्ति में परिवार के अन्य बच्चों के समान बराबर का हिस्सा मिलता है।
खासी जनजाति के लोगों का मानना है कि कुल के सभी सदस्य एक महिला पूर्वज के दंशज होते हैं। उन्हें 'एक कुल' कहा जाता है। ‘एक कुल’ आगे उप-कुलों में विभाजित हो सकता है, उपकुल उनसे प्रारंभ होता है, जो एक परनानी के वंशज होते हैं। अगली इकाई वह परिवार है, जिसमें नानी उसकी पुत्रियों और पुत्रियों के बच्चे एक छत के नीचे इकट्ठे रहते हैं। लड़का प्रायः उस परिवार में चला जाता है जिसमें उसका विवाह होता है। पति के रूप में पुरुष का काम संतान पैदा करना होता है। शादी से पूर्व पुरुष द्वारा अर्जित सभी संपत्ति उसकी माँ की है। विवाह के बाद पुरुष द्वारा अर्जित संपत्ति उसकी पत्नी के पास चली जाती है। पत्नी और बच्चों को इस तरह की संपत्ति विरासत में मिलती है । पत्नी की मृत्यु पर संपत्ति का मुख्य अंश सबसे छोटी बेटी को मिलता है। बेटी न होने की स्थिति में एक पुरुष की अर्जित संपत्ति बेटों में बराबर बाँटी जाती है।
(2) दक्षिण पश्चिम भारत में मातृवंशीय समूह -
भारत के दक्षिण-पश्चिमी क्षेत्र में केरल राज्य मातृवंशीय समुदायों का मुख्य गढ़ रहा है। यहाँ नायर समुदाय और केंद्रशासित प्रदेश लक्षद्वीप में मातृवंशीय मुस्लिम समुदाय की विशेषताओं का उल्लेख किया गया है–
(क) नायर उदाहरण - के. गॉफ (1952) पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया था कि नायरों में अलग-अलग नामों वाली जातिगत श्रेणियाँ हैं और उनमें तीन प्रकार की भिन्न-भिन्न नातेदारी व्यवस्था है। यह व्यवस्था उत्तरी केरल, मध्य केरल और त्रावणकोर के आस-पास के दक्षिणी क्षेत्रों में पाई जाती है। यदि मध्य केरल के नायर की बात की जाए तो इस समुदाय में पति यदा-कदा आय करता है। इस प्रकार उनके यहाँ मूल परिवार की संस्था नहीं है जिसमें पति पत्नी और बच्चे एक छत के नीचे रहते हैं। इस व्यवस्था में नायर महिलाओं को दक्षिण-पश्चिम केरल के नंबूदिरी ब्राह्मणों से शादी करने की अनुमति थी। वे नायरों के अपने समूहों की उच्च जातियों में भी विवाह कर सकती थीं। इससे स्पष्ट प्रतीत होता है, कि नायरों में अनुलोम विवाह का प्रचलन था, अर्थात् वे अपनी कन्याओं का विवाह उन समूहों में करते थे जिनकी सामाजिक प्रस्थिति उनके समूह की सामाजिक प्रस्थिति से उच्च होती. थी । इस प्रकार भी व्यवस्था से हमें भारत में अंतर्जातीय अनुलोम विवाह का अनोखा उदाहरण मिलता है क्योंकि उनमें नंबूदिरी ब्राह्मणों व क्षत्रिय नायरों के बीच विवाह संबंध स्वीकार्य है।
गॉफ ने मातृवंशीय परंपरा के भीतर नातेदारी के अंतर्व्यक्तिक संबंधों का वर्णन किया है और माँ तथा बेटे के बीच घनिष्ठता है। दूसरी ओर, उन्होंने बताया है कि मामा और भाँजे के बीच परिहार (Avoidance) और संयम के व्यवहार की अपेक्षा थी तथा मामा का भाँजी से परिहार जरूरी था मातृवंश परंपरा के हर पुरुष को अपनी छोटी बहन के प्रति औपचारिक व्यवहार रखना होता था। नायरों में नातेदारी के ये विशिष्ट लक्षण हैं। तराबाड में पुरुष अपने में और कनिष्ठ महिलाओं के बीच कौटुम्बिक व्यभिचार (incest) प्रतिबंधों का पालन करता था। इन प्रतिबंधों के पालने से वंशक्रम समूह की एकता बनी रहती थी। इसी तरह मातृवंश परंपरा के भीतर भी यौन संबंधों की अनुमति नहीं थी।
उदाहरण के तौर पर गॉफ ने बताया है कि आश्रित नायर जातियों में, एक महिला के एक ही समय में कई पति थे। उपयुक्त समूहों के पुरुष भी उससे मिलते थे। नायर पुरुष के संबंध में भी यही था। वह उपयुक्त समूहों की अनेक महिलाओं के पास जाता था। इस स्थिति में, 'विवाह' अथवा संबंध (नायर समुदाय में प्रयुक्त शब्द) में बहुत कम पाबंदियाँ व दायित्व होते थे। विवाह या संबंधम् को मूर्त रूप से व्यक्त करने के लिए किसी भी मौके पर कोई अनुष्ठान नहीं होता था। बच्चों के जन्म को वैध बनाने की प्रक्रिया काफी सरल थी । प्रसव कराने वाली दाई का कानूनन बाध्यकारी रकम की अदायगी और माँ के वस्त्रों का उपहार उपयुक्त श्रेणी के किसी व्यक्ति/व्यक्तियों द्वारा दिए जाते थे, जिससे उस महिला के साथ संबंधम (विवाह) होते थे। यह वह सब बच्चों को वैध बनाने के लिए था। वैवाहिक प्रस्थिति दर्शाने के लिए महिलाएँ जीवन पर्यन्त ताली या मंगलसूत्र पहनती थीं। माँ और उसके बच्चे केवल अनुष्ठानिक पति (ritual husband) की मृत्यु का सूतक मानते थे। लेकिन मिलने आते वे रहने वाले पतियों की मृत्यु पर वे कुछ नहीं करते थे। यहाँ हमने 'अनुष्ठान पति' शब्द का उल्लेख किया है।
मातृवंशीय समूह भूमि और अन्य संपत्तियों के प्रबंधन में कोई महत्त्वपूर्ण इकाई नहीं थे। इसके बदले हम पाते हैं कि संपत्ति समूह मुख्य वैधानिक इकाइयाँ थीं। यह स्थानीय जाति समूहों में उपलब्ध थी। वरिष्ठतम पुरुष सदस्य जिसे 'कारनावान' (Karnavan) कहा जाता था, वह संपत्ति समूहों की आर्थिक गतिविधियों के लिए जिम्मेदार था (तारवाड) नायरों में 'तारवाड' कुल और वंशों के लिए प्रयुक्त होता है। यह संपत्ति समूह के लिए भी प्रयुक्त होता था। लड़कियों के प्रसूति पूर्व और विवाह के संस्कारों तथा तारवाड सदस्यों के मृत्यु संस्कारों में तारवायड या कुल सदस्यों द्वारा सहयोगात्मक प्रदान किया जाता है। इन समारोहों में आपसी सहयोग की अनुवांशिक बंधनों से इन वंशों के लोग जुड़े होते हैं। नायर के बीच मातृवंशीय नातेदारी संगठन के प्रचलन में हाल के परिवर्तनों के आधार पर, यह कहा जाता है कि मध्य केरल के नायर तेजी से मूल परिवार के विचार को अधिक से स्वीकार कर रहे हैं। के. आर. उन्नी (1956) ने मध्य केरल के नायरों में आवास के विन्यास में बदलाव का अध्ययन किया है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि ये नायर मातृवंशीय परंपरा वाली नातेदारी व्यवस्था की जगह द्विपक्षीय नातेदारी व्यवस्था में ला रहे थे। अर्थात् उन्होंने माता और पिता दोनों के रिश्तों पर जोर देना शुरू कर दिया है।
(ख) लक्षद्वीप के मातृवंशीय मुसलमान- लक्षद्वीप के मातृवंशीय मुस्लिम केरल के अप्रवासी हिंदुओं के वंशज हैं। कालांतर में उनका इस्लाम में धर्म परिवर्तित हो गया । वे विस्थानिक आवास का पालन करते हैं। विस्थानिक आवास का अर्थ है कि पति और पत्नी अलग-अलग स्थानों में रहते हैं। इस संदर्भ में इसका अर्थ है पति रात में अपनी पत्नी के घर जाता है। इस द्वीप में मातृवंश परंपरा की आम इकाई तरावाड है। यहाँ तरावाड में वे सभी स्त्री-पुरुष होते हैं जिनका वंशक्रम महिला पूर्वज से चलता है। एक व्यक्ति के तरावाड में जन्म लेने के कारण, प्रत्येक व्यक्ति को तरावाड की संपत्ति में अंश प्राप्त करने का अधिकार होता है। यह अधिकार महिला सदस्यों के माध्यम से चलता है। पुरुष सदस्य को अपने तरावाड की संपत्ति का उपयोग करने का समान अधिकार होता है। तरावाड एक बहिर्विवाही इकाई है, अर्थात्, उसी तरावाड का एक सदस्य उसी तरावाड के अन्य सदस्य से विवाह नहीं कर सकता है। तरावाड में एक घरेलू समूह (domestic group) और अनेक घरेलू समूह भी हो सकते हैं।
इस मातृवंशीय मुस्लिम समुदाय में पिता की विशेष भूमिका होती है, जो इन लोगों के इस्लाम में धर्मांतरण के साथ जुड़ी है। हर पिता को अपनी बच्चों के जीवन चक्र की रस्मों (Life cycle ritual) से जुड़े समारोहों में काफी पैसा खर्च करना पड़ता है। लीला दुबे (1969) ने बताया है कि इस्लाम के प्रभाव ने किस तरह इस समुदाय के नातेदारी, और विवाह विन्यासों को प्रभावित किया है। पितृवंशीय परंपरा को प्रधानता देने वाली सामाजिक संरचना की इस्लामी प्रथाओं ने एक मातृवंशीय परंपरा के चलने वाले नातेदारी संबंधों के स्वरूप को काफी प्रभावित किया है। द्वीप में संपत्ति की उत्तराधिकार के संबंध में, लीला दुबे (1969) ने बताया है कि इस द्वीप पर 'विवाह' की संस्था काफी क्षीण है। इसमें अधिकार और जिम्मेदारियाँ बहुत कम हैं। लोग उत्तराधिकार के लिए मातृवंशीय और इस्लामी (पितृवंशीय) परंपरा के सिद्धांतों का जोड़-तोड़ करते हैं । इस्लाम में तलाक की विधि है और द्वीपनिवासी अक्सर इसका उपयोग करते हैं। हालाँकि, उत्पादन और उपभोग की एक इकाई के रूप में तरावाड की संस्था, मूल रूप से मातृवंशीय है। मातृवंशीय परंपरा वाले समुदायों के इन विवरणों में हमें भारत में आमतौर पर पाए जाने वाले पितृवंश परंपरा के समूहों के स्वरूपों के विपरीत चित्र प्राप्त होता है।