सामान्यतः भारत में विवाह के दोनों प्रकार अर्थात् एकल विवाह (किसी एक पुरुष का एक महिला से एक बार ही विवाह), और बहुविवाह, (पुरुष या महिला का एक से अधिक पुरुष या महिला से विवाह करना) पाए जाते हैं। अंतिम अर्थात् बहुविवाह के दो प्रकार हैं – (1) बहुपत्नी (एक पुरुष का एक समय में कई स्त्रियों के साथ विवाह) और (2) बहुपति (एक महिला का एक समय में कई पुरुष के साथ विवाह)। हिंदुओं के प्राचीन ग्रंथों में हमें आठ प्रकार के विवाहों का संदर्भ मिलता है, जो निम्न हैं :
(1) एकल विवाह (monogamy) और बहुविवाह (polygamy) -
भारत में एकल विवाह तथा बहुविवाह के दोनों प्रकारों का कहाँ-कहाँ प्रचलन है। इस चर्चा में आदर्शतः "क्या होना चाहिए" तथा व्यवहार में "क्या होता है। दोनों पक्षों को देखा गया है ।
एकल विवाह :
भारतीय स्वतंत्रता के बाद 1955 के हिंदू विवाह अधिनियम द्वारा सभी हिंदुओं तथा अन्य जो इस अधिनियम के तहत आते थे) के लिए एकल विवाह प्रथा स्थापित की गई। जिन अन्य समुदायों को इस अधिनियम के अंतर्गत रखा गया है वे हैं-सिख, जैन और बुद्ध धर्मानुयायी। ईसाई और पारसी समुदायों में एकल विवाह का प्रतिमान सदा से पाया जाता रहा है। हिंदुओं में बहुपत्नी विवाह बहुत आम नहीं थी। कुछ गिने चुने लोग जैसे राजा, सरदार, गाँव के मुखिया, भूमिधारी अभिजात वर्ग के लोग ही वास्तव में ऐसा विवाह करते थे। एकल विवाह के आम प्रचलन के बावजूद भी बहुपत्नी विवाह का प्रचलन अजीब बात नहीं थी। यह कहा जा सकता है कि जिन लोगों के पास एक से अधिक पत्नी रखने के साधन और शक्ति थे, वे बहुपत्नी विवाह करते थे। बहुपत्नी विवाह का दूसरा मुख्य कारण है, पत्नी का बांझ होना या उसकी लंबी बीमारी खेतिहरों और कारीगरों जैसे कुछ व्यावसायिक लोगों में आर्थिक लाभ की दृष्टि से बहुपत्नी विवाह पाया जाता है। जहाँ महिला अपना भार खुद वहन करती है तथा उत्पादन कार्यों में उसका वास्तविक योगदान होता है, पुरुष को एक से अधिक पत्नियाँ रखने से फायदा भी हो जाता है। बहुपत्नी विवाह के कारण महिलाओं को तरह-तरह के सामाजिक शोषण का शिकार होना पड़ता था। अतः उन्नीसवीं तथा बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, दयानंद सरस्वती और अन्य समाज सुधारकों द्वारा इस प्रथा को हटाने के सम्मिलित प्रयास किए गए थे।
बहुविवाह-
एक समय में एक महिला अथवा एक पुरुष के दो या दो से अधिक जीवन साथी हों। बहुविवाह के दो निम्नलिखित रूप होते हैं :
■ बहुपत्नी विवाह-
इस्लाम धर्म में बहुपत्नी रखना मान्य है। एक मुसलमान एक समय में चार पत्नियाँ रख सकता है, बशर्ते वह चारों को समान समझे। फिर भी ऐसा लगता है कि इस प्रकार के बहुपत्नी विवाह, मुख्य रूप से, कुछ अमीर तथा शक्तिशाली मुसलमानों तक ही सीमित थे । भारतीय जनजातियों के संबंध में पाया जाता है कि सामान्य रूप से जनजातियों के प्रथागत कानून में कुछ को छोड़कर) बहुपत्नी निषेध नहीं रहा है। उत्तरी और केंद्रीय भारत की जनजातियों में बहुपत्नी प्रथा अपेक्षाकृत अधिक प्रचलित है।
■ बहुपति विवाह-
बहुपत्नी विवाह से भी कम सामान्य यह विवाह केरल की कुछ जातियों में प्रचलित था। नीलगिरि के टोडा, उत्तर प्रदेश के देहरादून जिले के जोनसर बावर की खासा और उत्तर भारत की कुछ जातियों में बहुपति विवाह होते हैं। बहुपति विवाह के भ्रात्रीय प्रकार में महिला के सारे पति आपस में भाई-भाई पाए जाते हैं। सन् 1958 में सी.एम. अब्राहम ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि केंद्रीय त्रावनकोर में इरवा, पनियन, वेल्लान और असारी जैसे बहुत से समूहों में भात्रीय बहुपति विवाह प्रचलित रहा है। बहुपति प्रथा प्रचलित रहने के कुछ कारण निम्नलिखित हैं :
• परिवार में संपत्ति को विभाजित न होने देने की इच्छा (विशेषकर भ्रातृत्व बहुपति विवाह में)।
• परिवार में सगे भाइयों के बीच एकता तथा दृढ़ता की भावना को बनाए रखने की इच्छा (विशेषकर भ्रातृत्व विवाह में)।
• जिस समाज में पुरुष को व्यावसायिक तथा सैनिक यात्राओं के कारण घर से दूर रहना पड़ता है वहाँ भी से अधिक पति की आवश्यकता महसूस की गई।
• जटिल आर्थिक स्थिति विशेषकर उन स्थानों पर जहाँ बंजर भूमि के कारण भू-संपत्ति तथा अचल संपत्ति का विभाजन संभव नहीं था बहुपति विवाह का प्रचलन पाया जाता है ।
(2) प्रचलित स्वरूप-
भारत में एकल विवाह का रूप अत्यधिक प्रचलित है। फिर भी भारत के कई भागों में हिंदुओं में बहुपत्नी विवाहों (एक ही समय में दो पति/पत्नियाँ रखना) का पता चला है। पुरुष प्रायः दो पत्नियाँ रख लेता है और कानून की खामियों के कारण दंड से बच जाता है। पत्नी को उसके दूसरे विवाह का पता ही नहीं चलता और यदि इसका पता चल भी जाता है तो भी वह कानूनी अधिकारों से अनभिज्ञ रहती है और अपने भाग्य को ज्यों का त्यों स्वीकार कर लेती है। पति पर उसकी सामाजिक और आर्थिक निर्भरता और पति के कार्यों की समाज द्वारा भर्त्सना न किया जाना आदि कारणों से पत्नी पति के दूसरे विवाह को स्वीकार कर लेती है ।
मुसलमानों में पुरुष को न केवल चार पत्नियाँ रखने की अनुमति है परंतु साथ में पुरुष को महिलाओं की अपेक्षा अधिक सुविधाएँ भी दी गई हैं। मुस्लिम महिला द्वारा विवाह नहीं कर सकती जब तक उसका पहला पति जीवित हो या उसे पति द्वारा तलाक न दिया गया हो।
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