एक मन्दिर था, उसम सभी लोग पगार पर काम करते थे। आरती वाला, पूजा कराने वाला आदमी, घण्टा बजाने वाला भी पगार पर था, घण्टा बजाने वाला आदमी आरती के समय, भाव के साथ इतना मसगुल हो जाता था कि होश में ही नहीं रहता था। व्यक्ति पूरे भक्ति भाव से खुद का काम करता था। मन्दिर में आने वाले सभी व्यक्ति भगवान के साथ साथ घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के भाव के भी दर्शन करते थे। उसकी भी वाह वाह होती थी।
एक दिन मन्दिर का ट्रस्ट बदल गया, और नये ट्रस्टी ने ऐसा आदेश जारी किया कि अपने मन्दिर में काम करते सब लोग पढ़े लिखे होना जरूरी है । जो पढ़े लिखें नहीं है, उन्हें निकाल दिया जाएगा। उस घण्टा बजाने वाले , भाई को ट्रस्टी ने कहा कि तुम्हारी आज तक की पगार ले लो । कल तुम नौकरी पर मत आना । उस 'घण्टा बजाने वाले व्यक्ति ने कहा- साहेब भले मैं पढ़ा लिखा नहीं हूं, परन्तु इस कार्य में मेरा भाव भगवान से जुड़ा हुआ है, देखो !
ट्रस्टी ने कहा- सुन ला तुम पढ़े लिखे नहीं हो, इसलिए तुम्हे रखने में नहीं आएगा । दूसरे दिन मन्दिर में नये लोगो को रखने में आया । परन्तु आरती में आये लोगो को अब पहले जैसा मजा नहीं आता था । घण्टा बजाने वाले व्यक्ति की सभी को कमी महसूस होती थी। कुछ लोग मिलकर घण्टा बजाने वाले व्यक्ति के घर गए, और विनती करी तुम मन्दिर आओ । उस भाई ने जवाब दिया- मैं आऊंगा तो ट्रस्टी को लगेगा कि मैं नौकरी लेने के लिए आया हूँ । इसलिए मैं नहीं आ सकता ।
"वहाँ आये हुए ल एक उपाय बताया कि, मन्दिर के बराबर सामने आपके लिए एक दुकान खोल के देते है। वहाँ आपको बैठना है और आरत के समय घण्टा बजाने आ जाना, फिर कोई नहीं कहेगा तुमको नौकरी की | जरूरत उस भाई ने मन्दिर के सामने दुकान शुरू की और वो इतनी चली कि एक दुकान से सात दुकान और सात दुकानो से एक फैक्ट्री खोली । और करोड़पति बन गया । अब वो आदमी मंहगी गाड़ी से घण्टा बजाने आता था । समय बीतता गया । ये बात पुरानी सी हो गयी । मन्दिर का ट्रस्टी फिर बदल गया।
नये ट्रस्ट को नयी हर बनाने के लिए दान की जरूरत थी । मन्दिर के नये ट्रस्टी को विचार आया कि सबसे पहले उस फैक्ट्री के मालिक से बात करके देखते है । ट्रस्टी मालिक के पास गया । सात लाख का खर्चा है, फैक्ट्री मालिक को बताया। फैक्ट्री के मालिक ने कोई सवाल किये बिना एक खाली चेक ट्रस्टी के हाथ में दे दिया और कहा चैक भर लो, ट्रस्टी ने भरकर उस फैक्ट्री मालिक को वापस दिया । फैक्ट्री मालिक ने चैक को देखा और उस ट्रस्टी को दे दिया । ट्रस्टी ने चैक हाथ में लिया और कहा Signature तो बाकी है।
मालिक ने कहा मुझे Signature करना नहीं आता है लाओ- अंगुठा मार देता हुँ, वही चलेगा. ये सुनकर ट्रस्टी चौक गया और कहा- साहेब तुमने अनपढ़ होकर भी इतनी तरक्की की, यदि पढ़े लिखे होते तो कहाँ होते । तो वह सेठ हँसते हुए बोला भाई, मैं पढ़ा लिखा होता तो बस मन्दिर में घण्टा बजा रहा होता।
"कार्य कोई भी हो, परिस्थिति भी हो, हमारी क़ाबिलियत, हमारी भावनाओं पर निर्भर करती है । भावनायें शुद्ध होगी तो ईश्वर और सुंदर भविष्य पक्का हमारा साथ देंगे । बस विश्वास रखिये ।"