महिलाओं के बहुत कम राजनीतिक सहभागिता और प्रतिनिधित्व के कारणों का परीक्षण

      1970 के मध्य से लोकतंत्रीकरण के तीसरे चरण की शुरुआत लैटिन अमेरिका पूर्वी और केंद्रीय यूरोप के अनेक देशों और अफ्रीका तथा एशिया के कई भागों में हुई और इसने स्पर्द्धात्मक चुनावी राजनीति को प्रारंभ किया। इसे लोकतंत्र की विजय के रूप में देखा गया क्योंकि निर्वाचक लोकतंत्रों की संख्या 1974 में 39 से 1998 में 117 हो गई। फिर भी, पूर्व के लंबे समय से कार्यरत लोकतंत्रों की तरह, नए लोकतंत्रों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व विधायिकाओं और कार्यपालिकाओं, दोनों में कम है। राजनैतिक नागरिकता लंबे समय से महिला आंदोलनों के संघर्ष का महत्त्वपूर्ण लक्ष्य था । व्यस्क मताधिकार के लिए आंदोलन 19‌ वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 20 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में संसार के अनेक भागों में हुए, उनका आधार यह था कि मतदान का अधिकार और चुनावी प्रक्रियाओं में भाग लेना, नागरिकता का एक महत्त्वपूर्ण भाग थे।
लोकतंत्र के बारे में लोकतंत्रीकरण के सिद्धांतकारों ने अलग-अलग परिभाषाएँ दी हैं-  

  • एक छोर पर यह न्यूनतम परिभाषा है, तुलनात्मक निर्वाचन ही सभी कुछ और पर्याप्त है ।
  • मध्यम परिभाषाएँ स्वतंत्रता और बहुलवाद की आवश्यकता पर भी जोर देती है, जैसे नागरिक अधिकार, और वाक् स्वंत्रतता जिससे राज्यों को एक उदारवाद लोकतंत्र माना जा सके। 
  • ये परिभाषाएँ सहभागिता के अधिकार और सहभागिता के लिए सामर्थ्य के बीच कोई अंतर स्थापित नहीं करती हैं। केवल अत्यधिक काल्पनिक परिभाषाएँ जो कि लोकतंत्र की गुणवत्ता को स्वीकार करती हैं, वे इस बात पर जोर देती है कि वृहद अर्थ में लोकतंत्र पूरी नागरिकता की सुविधाओं का आनंद भी है।


नागरिकता को केवल नागरिक और राजनैतिक अधिकारों के ही संदर्भ में व्यक्त नहीं किया जा सकता, बल्कि आर्थिक और सामाजिक अधिकारों के संदर्भ में भी, ताकि राजनैतिक क्षेत्र में सभी को पूर्ण सहभागिता का अवसर प्राप्त हो । लोकतंत्र तभी सशक्त और प्रभावकारी हो सकता है, जब नागरिक समाज में एक सक्रिय नागरिक भाग लें।

 'सार्वजनिक' और 'निजी' :  


लंबे समय से स्त्रीवादियों ने तर्क दिया है कि जिस ढंग लोकतंत्र की व्याख्या, सैद्धांतीकरण और प्रैक्टिस की जाती है, उसमें अनेक बाधाएँ हैं उदारवादी राजनैतिक सिद्धांत सार्वजनिक और निजी क्षेत्र के बीच विभाजन पर आधारित है। इस ढाँचे के अंतर्गत पुरुष घर के प्रमुख होते हैं और सार्वजनिक जीवन में मूर्त व्यक्तियों की तरह सक्रिय होते हैं, जबकि महिलाओं को परंपरा की तरह निजी जिंदगी तक सीमित रखा जाता है। अतः ‘राजनीतिक' को एक अति गंभीर अर्थ में पुल्लिंग की तरह माना जाता है। व्यावहारिक तौर पर, लोकतंत्रों में जिस तरीके से राजनीतिक गतिविधियाँ संचालित होती है और जिस प्रकार का महिलाओं का आम तौर पर स्वभाव होता है, कि वे खासकर परंपरावादी राजनैतिक गतिविधियों के उच्च स्तरों पर पुरुषों की तुलना में बहुत कम भाग लेती हैं। जैसे -
  • अनेक महिलाएँ राजनीति की शैली और सार को रुकावट मानती हैं।
  • यदि वे राजनीतिक जीवन अपनाने का निर्णय करती हैं, तो अक्सर विजयी होने वाली सीट पर भी पार्टी सूची में जगह पाने में कठिनाइयाँ महसूस करती हैं।
  • इसके अलावा, सार्वजनिक जीवन के दूसरे क्षेत्रों की ही तरह महिलाएँ निजी जीवन में अपनी जिम्मेदारियों की वजह से परंपरावादी राजनैतिक गतिविधि में पुरुषों के समानार्थ हिस्सा नहीं ले पाती हैं।

      यह कहना सही नहीं होगा कि लोकतंत्र की प्रकृति पर सहमति है। लेनिन के अनुसार उदारवादी लोकतंत्र एक स्क्रीन है, जो जनता के शोषण और दमन को छिपाता है। हाल जह कैरोल पेटमैन ने तर्क दिया है कि लोकतंत्र को कार्यस्थल तक लागू होना चाहिए - जहां अधिक लोग अपने दिन का अधिकांश समय बिताते हैं इससे पहले कि हम यह कहें कि हम - प्रजातांत्रिक शर्तों के अनुसार जी रहे हैं।
      अरस्तु ने हमें बताया था कि लोकतंत्र के उचित ढंग से संचालन के लिए उसे एक स्थिर कानून व्यवस्था की आवश्यकता होती है। अन्यथा लोकतंत्र अनेक लोगों के दमनात्मक निरंकुश तंत्र के रूप में भीड़ का शासन बन सकता है। इसी तरह का विचार द टॉकवी का था कि लोकतंत्र एक नए प्रकार का अधिनायकवाद (बहुमत का अधिनायकवाद) की संभावना को उत्पन्न करता है। मेडिसन ने वर्गवाद के खतरे से आगाह किया था, जिसके अंतर्गत एक बड़ा या छोटा समूह लोगों के आमहित से कोई संबंध नहीं रखता है और जिसका प्रयास अपने हितों के लिए प्रजातांत्रिक प्रणाली से विमुख होना होता है।
      आधुनिक लोकतंत्र अपने लिए नौकरशाही ढाँचे का निर्माण करता है। मैक्स वेबर के अनुसार नौकरशाही ढाँचा लोकतंत्र के संचालन में रोड़े अटकाता है, क्योंकि लोकतंत्र से उत्पन्न नौकरशाही का झुकाव प्रजातांत्रिक प्रक्रिया का खात्मा करना होगा। पॉरेटो ने कहा था कि यद्यपि प्रजातांत्रिक समाज होने का दावा किया जा सकता है, लेकिन इस शासन व्यवस्था की बागडोर शक्तिशाली संभ्रांतवादी वर्ग के हाथ में अनिवार्य रूप से होगी। यह तर्क दिया जा सकता है कि शक्ति के पृथक्करण और नियंत्रण व संतुलन की अवधारणाएँ निरंकुशतावाद को बहुत हद तक रोक सकती हैं। इससे ज्यादा हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि जो लोग कानून बनाते हैं, वे उनको लागू भी करें।





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